बुधवार, 18 नवंबर 2009
धर्म और राजनीति का असंतुलन
धर्म और राजनीति में असंतुलन किसी भी देश,राज्य और समाज के लिए हितकर नहीं हैं। धर्म और राजनीति का आदिकाल से साथ रहा है। समय स्थिति और काल के हिसाब से इसकी मान्यताएं बदलती रही हैं,लेकिन धर्म और राजनीति को एक'दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। सतयुग जिसे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का कार्यकाल कहा जाता है। उस समय भी धर्म और राजनीति का साथ देखने को मिलता है। धर्म सदैव राजनीति का मार्गदर्शक रहा है। जब'-जब राजनीति संक्रमण काल के दौर से गुजरी उसे धर्म ने प्रजा हित का मार्ग दिखाया। दूसरे शब्दों में कहे कि जब जब राजनीति को समाजिक ताना'-बाना बिखरता नजर आया उसने धर्म की शरण ली और धर्म ने उसे सही मार्ग दिखाने में गाइड की भूमिका निभाई है। भगवान राम के समय राजनीति के मार्गदर्शक का दायित्व गुरु वशिष्ठ ने निभाया। तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस में हमें यह देखने को मिलता है कि जब भी अयोध्या के राजा को चाहे वह भगवान राम के पिता दशरथ रहे हों या स्वयं भगवान राम जनहित का फैसला लेने में दुश्वारियों का सामना करना पडा गुरु वशिष्ठ की शरण में गए और उन्होंने अर्थात धर्म ने राजनीति की सुचिता का उन्हें मार्ग दिखाया। लेकिन कलयुग अर्थात वर्तमान में जबकि राजनीति दिशाहीन हो रही है न तो राजा ही धर्म से राजनीति की सुचिता का मार्ग दिखाने की प्रार्थना करता प्रतीत हो रहा है और न ही धर्माचार्य राजा को सही राह दिखाने की भूमिका में नजर आ रहे हैं। उल्टे हो यह रहा है कि धर्म राजनीति की दासता अंगीकार करता नजर आ रहा है। धर्माचार्यों का राजनीति से प्रेम करना कोई बुराई नहीं है,लेकिन राजनीति की चमक-दमक से प्रभावित होकर धर्माचार्यो का राजनीति की चाटुकारिता करना समझ से परे प्रतीत हो रहा है। ऐसा लगता है कि राजनीति के दिशाहीन होने की वजह इसे राह दिखाने वाले धर्माचार्यों का स्वयं धर्म के सदाचारों मूल्यों से विमुख हो जाना है। रामचरित मानस में ही तुलसीदास जी ने कहा है कि सचिव वैद गुरु तीन जो प्रिय बोले भय आस। राज,धर्म कुल तीन का होई बेगि ही नाश।। राजा के भय से उसके मंत्री वैद और गुरु यदि उसके हर फैसले में हां से हां मिलाने लगे तो समझो उस राजा,उसके राज्य,कुल और धर्म का पतन सुनिश्चित है। गुरु ही यदि दिग्भ्रमित हो जाए तो राह कौन दिखाएगा। वर्तमान पर गौर करें तो हमारे कथित धर्माचार्यों ने धर्म का बाजारीकरण कर दिया है। दूसरों को मोह,माया और लोभ से दूर रहने का उपदेश देने वाले हमारे मार्डन धर्माचार्य खुद अकूत धन संपदा के स्वामी बन गए हैं। कोई काले जादू से जनता को संमोहित कर रहा है तो कोई काले धन को सफेद करने में जुटा है। स्थितियां यदि ऐसी ही रहीं तो प्रजा को राह कौन दिखाएगा। क्या ऐसे आडंबरियों के खिलाफ अलख जलाने की जरूरत नहीं है। आपके विचार आमंत्रित है।
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श्रीमान उपाध्याय जी, आपकी चिंता वाजिब है लेकिन तार आपने गलत सिरे से पकड़ा। असल में धर्म राजनीति का अगुवा नहीं है बल्कि राजनीति धर्म को इस्तेमाल करती है। भाजपा, शिवसेना, संघ, बजरंग दल, सिमी, तालिबान, जमीयत, हुर्रियत आदि आदि संगठन इस बात के गवाह हैं कि इन्होंने राजनीति के लिए धर्म को इस्तेमाल किया।
जवाब देंहटाएंसंदीप जी आपका कहना है कि वर्तमान में राजनीति ने धर्म को अगुआ कर लिया है। यही वह वजह है जिससे समाज का ताना-बाना बिखर रहा है। यदि वह पीछे की ओर देखें तो धर्म ने सदैव राजनीति को राह दिखाई है। धर्म की दिखाई राह से राजनीति देश और समाज के हितकर बनी है। चूंकि आज राजनीति धर्म का इस्तेमाल कर रही है।अत: इसके दुष्परिणाम भी सामने आ रहे है। आपकी सलाह के लिए धन्यवाद
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