मंगलवार, 24 नवंबर 2009

भाजपा और सपा की नूरा कुश्‍ती

चुनावों में लगातार हार से हताश भाजपा एवं सपा पुन: साम्‍प्रदायिक राजनीति के एजेंडे पर लौटने के प्रयास में है। भाजपा से उसका हिंदू व सपा से मुस्लिम वोट बैंक खिसक गया है। इससे यह दोनों ही पार्टी फिर से एक दूसरे का सहारा बनने के लिए देश की राजनीति को हिंदू और मुस्लिम के नाम पर बांट कर अपने स्‍वार्थ की रोटियां सेकने के प्रयास में हैं। राज्‍यसभा में मंगलवार को राम और अली के नाम पर भाजपा नेता एस अहलूवालिया व सपा महासचिव अमर सिं‍ह के बीच हुई हाथापाई इसी का हिस्‍सा है। यह दोनों पार्टिया एक दूसरे की पोषक हैं। मुसलमानों की अलंबरदार बनने वाली सपा और उसके नेता जो आज कह रहे हैं वह उन्‍हें कल तक दिखाई नहीं दे रहा था फिरोजाबाद लोकसभा चुनाव में बहू डिंपल यादव की हार के बाद सपा को अब मुस्‍लिमों की याद आने लगी है। हार के तुरंत बाद उन्‍हें वही कल्‍याण सिंह बाबरी विध्‍वंस के दोषी नजर आ रहे हैं जो कल तक उसे पिछडा वोट बैंक की मजबूत कडी लग रहे थे। मुलायम और अमर ने मुस्‍लिमों के तमाम विरोध को दरकिनार कर कल्‍याण को हमसफर बनाने में कोई हिचक नहीं दिखाई। तब उन्‍हें कल्‍याण का लोध फैक्‍टर ज्‍यादा लुहावना लग रहा था। यही नहीं लोकसभा चुनावों में मुस्‍लिम समुदाय के कांग्रेस में शिफ़ट होने और कांग्रेस की यकायक 21 सीटें हो जाने पर भी कल्‍याण में कोई खराबी नजर नहीं आई,मगर बहू डिंपल के हारते ही कल्‍याण उन्‍हें सांम्‍प्रदायिक नजर आ गए। दरअसल सत्‍ता का मद होता ही ऐसा है। सत्‍ता के मद में मुलायम यह भूल गए कि जिस मुस्‍लिम समुदाय ने राजीव गांधी की एक भूल पर कांग्रेस जैसे बरगद से किनारा करने में देर नहीं की और मुलायम को अपना लिया। वह मुस्‍लिम समुदाय जिसकी रग-रग में खुददारी भरी है बाबरी विध्‍वंस के नायक कल्‍याण से दोस्‍ती कर उन्‍हें चिढाने जैसा कदम उठाने वाले मुलायम और उनके हनुमान अमर को माफ कर देगा। कांग्रेस ने राजीव गांधी की भूल(शिलान्‍यास कराना) के बाद मुस्‍लिम समुदाय को मनाने के लिए क्‍या कुछ नहीं किया,पर मुस्‍लिम वर्ग नहीं पसीजा। पूरी एक पीढी बदल गई। कांग्रेस की बागडोर राजीव से राहुल के हाथ में आ गई। तब कहीं जाकर वह अपने पुराने घर वापस लौटा है। वह भी तब जब मुलायम जैसे खैरख्‍वाह ने उसके साथ दगेबाजी कर कल्‍याण को गले लगा लिया। इतने जानने और समझने के बाद भी यदि मुलायम जैसा सियासतदां यह समझता है कि कल्‍याण से किनारा करने के बाद रूठे मुसलमान फिर उसे गले लगा लेंगे तो इस पर हसा ही जा सकता है। मुलायम को यह समझना होगा कि काठ की हडिया एक बार ही चढती है बार बार नहीं। सब जानते हैं कि मुलायम और भाजपा एक दूसरे के पोषक है। भाजपा की कीमत पर सपा और सपा की कीमत पर भाजपा मजबूत होते हैं। पीछे की तरफ नजर डालें तो आपको यह साफ नजर आ जाएगा। देश विशेष कर उत्‍तर प्रदेश में भाजपा के प्रभावी होने के साथ ही सपा का प्रभाव बडा था। वह राम मंदिर आंदोलन का दौर था। ‍भाजपा के कमजोर होते ही सपा का ग्राफ भी नीचे आना शुरू हो गया है। भाजपा ने मदिर निर्माण के नाम पर हिंदूओं के साथ छल किया और सपा ने भाजपा के विरोध सब्‍जबाग दिखाकर मुस्‍लिमों के साथ कपट किया। इसको भांप कर ही हिंदुओं ने भाजपा से और मुस्‍लिमों ने सपा से किनारा कर लिया। अब पछताए होत क्‍या जब चिडिया चुग गई खेत। हिंदू और मुसलमानों के साथ छोडने के बाद अब भाजपा को राम और सपा को अली याद आ रहे हैं। अन्‍यथा कल तक यही भाजपा थी जिसे सात साल केंद्र में शासन के दौरान एक बार भी मंदिर निर्माण की याद नहीं आई और यही सपा है जिसे अपने विधायकों को राजनीत का कखहरा सिखाने के लिए केसी सुदर्शन की मदद लेना और कल्‍याण को गले लगाना ज्‍यादा सुहाया था। जनता को सब पता है वह चुपचाप सारा नजारा देख रही है। मुलायम तो शायद अब यह भी भूल चुके हैं कि उन्‍हें सियासत का अलंबरदार बनाने में जिन बैनी,आजम और राज ने पसीना बहाया था। मीडिया के उन तमाम लोगों ने बुरे वक्‍त में उनका साथ दिया था बिना किसी लोभ लालच के वह उन सब से बहुत दूर जा चुके हैं। उन्‍हें और उनके हनुमान को यह समझना होगा चंद चांदी के सिक्‍कों की खनक से सबको गुलाम नहीं बनाया जा सकता कम से कम उनको तो कतई नहीं जो और निडर व साफगोई हैं।

बुधवार, 18 नवंबर 2009

धर्म और राजनीति का असंतुलन

धर्म और राजनीति में असंतुलन किसी भी देश,राज्‍य और समाज के लिए हितकर नहीं हैं। धर्म और राजनीति का आदिकाल से साथ रहा है। समय स्थिति और काल के हिसाब से इसकी मान्‍यताएं बदलती रही हैं,लेकिन धर्म और राजनीति को एक'दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। सतयुग जिसे मर्यादा पुरुषोत्‍तम भगवान राम का कार्यकाल कहा जाता है। उस समय भी धर्म और राजनीति का साथ देखने को मिलता है। धर्म सदैव राजनीति का मार्गदर्शक रहा है। जब'-जब राजनीति संक्रमण काल के दौर से गुजरी उसे धर्म ने प्रजा हित का मार्ग दिखाया। दूसरे शब्‍दों में कहे कि जब जब राजनीति को समाजिक ताना'-बाना बिखरता नजर आया उसने धर्म की शरण ली और धर्म ने उसे सही मार्ग दिखाने में गाइड की भूमिका निभाई है। भगवान राम के समय राजनीति के मार्गदर्शक का दायित्‍व गुरु वशिष्‍ठ ने निभाया। तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस में हमें यह देखने को मिलता है कि जब भी अयोध्‍या के राजा को चाहे वह भगवान राम के पिता दशरथ रहे हों या स्‍वयं भगवान राम जनहित का फैसला लेने में दुश्‍वारियों का सामना करना पडा गुरु वशिष्‍ठ की शरण में गए और उन्‍होंने अर्थात धर्म ने राजनीति की सुचिता का उन्‍हें मार्ग दिखाया। लेकिन कलयुग अर्थात वर्तमान में जबकि राजनीति दिशाहीन हो रही है न तो राजा ही धर्म से राजनीति की सुचिता का मार्ग दिखाने की प्रार्थना करता प्रतीत हो रहा है और न ही धर्माचार्य राजा को सही राह दिखाने की भूमिका में नजर आ रहे हैं। उल्‍टे हो यह रहा है कि धर्म राजनीति की दासता अंगीकार करता नजर आ रहा है। धर्माचार्यों का राजनीति से प्रेम करना कोई बुराई नहीं है,लेकिन राजनीति की चमक-दमक से प्रभावित होकर धर्माचार्यो का राजनीति की चाटुकारिता करना समझ से परे प्रतीत हो रहा है। ऐसा लगता है कि राजनीति के दिशाहीन होने की वजह इसे राह दिखाने वाले धर्माचार्यों का स्‍वयं धर्म के सदाचारों मूल्‍यों से विमुख हो जाना है। रामचरित मानस में ही तुलसीदास जी ने कहा है कि सचिव वैद गुरु तीन जो प्रिय बोले भय आस। राज,धर्म कुल तीन का होई बेगि ही नाश।। राजा के भय से उसके मंत्री वैद और गुरु यदि उसके हर फैसले में हां से हां मिलाने लगे तो समझो उस राजा,उसके राज्‍य,कुल और धर्म का पतन सुनिश्चित है। गुरु ही यदि दिग्‍भ्रमित हो जाए तो राह कौन दिखाएगा। वर्तमान पर गौर करें तो हमारे कथित धर्माचार्यों ने धर्म का बाजारीकरण कर दिया है। दूसरों को मोह,माया और लोभ से दूर रहने का उपदेश देने वाले हमारे मार्डन धर्माचार्य खुद अकूत धन संपदा के स्‍वामी बन गए हैं। कोई काले जादू से जनता को संमोहित कर रहा है तो कोई काले धन को सफेद करने में जुटा है। स्थितियां यदि ऐसी ही रहीं तो प्रजा को राह कौन दिखाएगा। क्‍या ऐसे आडंबरियों के खिलाफ अलख जलाने की जरूरत नहीं है। आपके विचार आमंत्रित है।